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वी॒ळौ स॒तीर॒भि धीरा॑ अतृन्दन्प्रा॒चाहि॑न्व॒न्मन॑सा स॒प्त विप्राः॑। विश्वा॑मविन्दन्प॒थ्या॑मृ॒तस्य॑ प्रजा॒नन्नित्ता नम॒सा वि॑वेश॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vīḻau satīr abhi dhīrā atṛndan prācāhinvan manasā sapta viprāḥ | viśvām avindan pathyām ṛtasya prajānann it tā namasā viveśa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वी॒ळौ। स॒तीः। अ॒भि। धीराः॑। अ॒तृ॒न्द॒न्। प्रा॒चा। अ॒हि॒न्व॒न्। मन॑सा। स॒प्त। विप्राः॑। विश्वा॑म्। अ॒वि॒न्द॒न्। प॒थ्या॑म्। ऋ॒तस्य॑। प्र॒ऽजा॒नन्। इत्। ता। न॒म॒सा। वि॒वे॒श॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के सङ्ग से क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (धीराः) उत्तम विचारयुक्त (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (प्राचा) प्राचीन (मनसा) अन्तःकरण से (सप्त) पाँच प्राण बुद्धि और मन तथा (सतीः) वर्त्तमान प्रकृतियों को (अभि) (अहिन्वन्) बढ़ाते हैं और मिथ्या का (अतृन्दन्) नाश करें तथा (ऋतस्य) सत्य के (वीळौ) प्रशंसनीय बल में (विश्वाम्) सम्पूर्ण (पथ्याम्) मर्य्यादा के योग्य क्रिया को (अविन्दन्) प्राप्त होते हैं वैसे आप (ताः) उनको (नमसा) स्तुति से (प्रजानन्) जानते हुए (इत्) ही (आ) (विवेश) शुभ कर्म में प्रवेश कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे युक्ति से सेवन किये हुए प्राण और अन्तःकरण दुःख के त्याग और सुख के लाभ के लिये समर्थ होते हैं, वैसे ही विद्वानों के सङ्ग आदि कर्म दुःखों को निवृत्त कराके सुखों को उत्पन्न कराते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वत्सङ्गेन किं जायत इत्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा धीरा विप्राः प्राचा मनसा सप्त सतीरभ्यहिन्वन्ननृतमतृन्दन्नृतस्य वीळौ विश्वां पथ्यामविन्दन् तथा त्वं ता नमसा प्रजानन्निदा विवेश ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वीळौ) प्रशंसनीये बले (सतीः) विद्यमानाः प्रकृतीः (अभि) (धीराः) ध्यानवन्तः (अतृन्दन्) हिंस्युः (प्राचा) प्राक्तनेन (अहिन्वन्) वर्धयन्ति (मनसा) अन्तःकरणेन (सप्त) पञ्च प्राणा बुद्धिर्मनश्च (विप्राः) मेधाविनः (विश्वाम्) सर्वाम् (अविन्दन्) लभन्ते (पथ्याम्) पथि साध्वीं क्रियाम् (ऋतस्य) सत्यस्य (प्रजानन्) (इत्) एव (तानि) (नमसा) (आ) (विवेश) आविश ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा युक्त्या सेवितानि प्राणान्तःकरणानि दुःखत्यागाय सुखलाभाय च प्रभवन्ति तथैव विद्वत्सङ्गादीनि कर्म्माणि दुःखानि निर्वार्य सुखानि जनयन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे युक्तीने सेवन केलेले प्राण व अंतःकरण दुःखाचा त्याग व सुखाच्या लाभासाठी समर्थ असतात तसेच विद्वानांची संगती इत्यादी कर्म दुःखांना निवृत्त करून सुख उत्पन्न करतात. ॥ ५ ॥